साक्षर हाल बताती हूँ ,
निषिद्ध जगहों पर जाती हूँ।
तिनका तिनका चुनती हूँ ,
मन का भगवान सजाती हूँ।
मन के हारे हार रही थी,
मन के जीते जीत गई।
इस हार जीत की पखापखी में,
दुनिया सारी बीत गई।
एक स्त्री मन लड़ता रहता है,
एक वीर चरित्र की विदुषी से,
दोनों इक काठ में रहती हैं,
सहारे मिज़ाज पुर्सी के।
स्त्री मन इतना सुगम नहीं ,
सिकुड़ जाए आलिंगन में,
या कील ठोक कर सजा दो उसको,
अपने सुंदर आंगन में ।
वह है सत्य का गरल रूप,
वह है अग्नि का सरल रूप।
यह ताप किसी का हनन नहीं,
बस बचा के मन को रखा है।
ये शीश कहीं पर मगन नहीं,
इसने हर भय को चक्खा है।
कुछ नस में तन कर नाच रहे,
कुछ की नस पर मैं हूँ सवार,
न कोई सुखद अंत आगे,
ये कैसा युद्ध ये कैसा वार?
मन थरथर थरथर काँपे है
पर मुख में कोई बोल नहीं,
वक्षस्थल में गीत छुपा,
सुना नहीं तो मोल नहीं।
यह सुंदर मुख यह उम्र कंवर,
सब नश्वर आगे भागे है,
सब थके थके सब बुझे बुझे
बस मन में कोई जागे है।
सब रुक जाओ....!
सब रुक जाओ, अब राम कहो,
इस दौड़ भाग को विराम कहो।
मेरे हृदय का घृत कुछ पिघल रहा,
यह सारा अभिनय सफल रहा।
यह स्त्री मन थक कर बोझिल है,
इसे वीर कहूँ या माँ कह दूँ?
यह पत्थर पिघल के नदी हुआ,
अब इससे ज़्यादा क्या कह दूँ?
मन चीड़ बना, फिर बहुत उड़ा,
फिर धड़ से गिरा तो टूट गया,
बस इन टूटे टुकड़ों को बीन,
मैं ईश्वर एक सजाती हूँ,
मन मंदिर एक बनाती हूँ ।
दुनिया में कितनी उथल पुथल,
कभी दौड़ भाग कभी ठेठ अचल।
इस चलती रुकती समयगति में ,
दिखता एक ही सत्य अटल।
इन सबसे ऊपर मन मेरा
मन का भगवन वो आशादीप।
दुनिया के कोलाहल से दूर,
इस अंधकार में रहे समीप।
ये छंद विच्छेद भी हो जाएं ,
तो लौट के स्त्री मन आना है
इस हल्की दीपित बत्ती से,
सारा संसार चलाना है ।
–प्रतिष्ठा
Bahut sundar
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