Tassalli se ek tarkeeb likhti hun by Pratishtha Mishra at Blending Thoughts
तुमने कहा है तो चलो आज तकलीफ़ लिखती हूँ,
हर एक के मन की खीझ लिखती हूँ।
मैं सबकी उलझन तो लिखूँगी ही,
साथ में एक तरकीब लिखती हूँ।

बहुत सुना होगा तुमने,
कि लोग कहते थे चलते जाओ,
जो ठोकर खाओ तो नीचे न देखो,
फटे जूतों को तसल्ली के धागों से सिलते जाओ।

भूतपूर्व सी हो गई है वो कथा,
जिसमे लकीरों में एक ऊंचाई दिखती थी,
क्योंकि तब महनत से लकीरें हाथों में,
ख़ुद ब ख़ुद बढ़ती थीं।

अद्भुत था वह संलग्न जिसमे दो देह दाह नही करते थे,
बस थोड़ा सा त्याग करते थे।
आज जो विवाद बन जाता है,
तब वह चिह्नित भी न करते थे।

सबका कारण बस कारण है,
क्यों जो हुआ, न उसका कारण है?
जो करना है कोई सोचे न,
पिछले में उलझे अकारण है।

न व्रत रखो, न स्वांग रचो,
हर अंग अंग से सत्य भचो।
मैं हूँ तो हूँ,
कमज़ोर सही,
साँसों में है थोड़ा ज़ोर सही।
मैं अठखेल नही जो ठिठोल करूँ,
मैं रकम नही जो मोल करूँ।
मैं ज़िद्दी भटकी बाला हूँ,
जो निचोड़ तो बस मैं काला हूँ,
तुम झूठ कहो,
मैं ज्वाला हूँ।

गलत का एक उदाहरण हूँ,
और विद्रोह का थोड़ा वरण भी हूँ।
मैं शील नही शालीन नही,
जल बिन तड़पे,
वह मीन नही।

मैंने पूछा तुम आज में हो?
तुम तो कल कल के राज में हो।
कल गलत हुआ, कल कुछ होगा,
कुछ नही कभी सब कुछ होगा।

जो हाथ तुम्हारा बेबस है,
बस काम है इसका नीरस सा।
यह चमड़ा था,
जो रगड़े न,
जो खूब चले पर उधड़े न।
वह बस उंगली से इंगित करता है,
इसको उसको चित करता है।

मैं चिल्लाऊं या चयन करूँ?
या सही गलत पर मनन करूँ।

मैं फिर से हार के जाती हूँ,
जीतती नही हूँ जानती हूँ,
पर जलते जलते जीती जाती हूँ।

यह तकलीफ़ थी मेरे चिंतन की,
तरक़ीब थी मेरे अंतर्मन की।

न काल को दोषारोपण दो,
बस आज को आत्मसमर्पण दो।

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