मैं अपने सखा संग खिलखिला रहा हूँ, लहलहा रहा हूँ।
मै इतना गलगल हूँ इन सब से कि लगता है सब आखरी बार है।
बस तभी खेतिहर आया मेरे पास,
पूरी तैयारी के साथ।
मुझे मेरी दुनिया से लेने।
मैं विरोध करता भी तो कैसे, उसके छूते ही आभास कुछ ऐसा था,
जैसे बच्चे का पहला स्पर्श उसकी माँ से।
उसके स्वेद में ममत्व था।
अब बात ऐसी है,
उसके बाद का दृश्य रंगीन होता है।
लोग क्या क्या नही करते है उसके पश्चात।
और मैं अपनी आख़री सांस को जीता जाता हूँ।
थोड़ा थोड़ा सा धड़कता जाता हूँ।
गाँव के घरों से होकर, दुकानों की ज़मीन की साज सज्जा बढ़ाता हूँ।
कुछ कुछ मैं,
सड़कों पर गिर जाता हूँ।
आहार हूँ मैं,
किसी न किसी का बन जाता हूँ।
दुकानों से मैं आवाज़ों की तरफ बढ़ रहा हूँ,
कभी ज्वार संग तो कभी मक्के संग,
वरना अकेले ही,
चक्की में पिस रहा हूँ।
"आटे के साथ घुन भी पिसता है।"
कहावत बन रहा हूँ।
घर घर चल रहा हूँ,
मैं झोपड़ी में भी जाता हूँ,
मैं महलों में भी जाता हूँ।
फिर से मेरा मिलन पानी से हुआ है,
पहले सींचा गया था,
अब साना गया हूँ।
किसी ने मुझे प्रेम से गोलियाया और बेला है।
अब मुझे बस आखरी सांसे लेनी हैं,
मैं अपने सबसे उच्चतम मित्र के आलिंगन का रसास्वादन करके ही जाऊँगा।
मैं जिस ग्रीष्म में सूखा था कभी,
आज तेज आँच में सेका जाऊँगा।
अंततः चिमटे के बीच दबकर मैं ख़त्म हो जाऊँगा।
मृत्यु पश्चात भी थालियों की शोभा बढ़ाऊँगा।
रोटी परांठे तुम खाओगे, तुम्हे पता भी नही चलेगा।
मैं फिर से कहीं पौधा बन जाऊँगा,
मैं फिर से रोटी बन जाऊँगा।
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