krishna

हठी था मेरा बचपन।
एक ओर बाल कृष्ण और दूजी ओर नवल किशोर लेकर मैं सजाने बैठ जाती थी।
घर के मंदिर से अलग मेरा मंदिर हुआ करता था। जैसे वह घरौंदा नही मेरा घर हो। मैं उन्हें नहलाती, सजाती-तुलाती, भोग लगाती और फिर टकटकी बांध कर देखती। बातें चलती थी खूब। उन्हें "बिटिया का कन्हैया"कहा जाने लगा था।
वो कृष्ण तो मैं कृष्णा,
वो श्याम तो मैं श्यामा,
वो किशोर तो मैं किशोरी,
वो माधव तो मैं माधवी।

मैं उन्हें देखती ही ऐसे थी कि वो परेशान होकर बोल उठते थे, मैं थिरकती ही ऐसे थी कि वो झूम उठते थे।
वो भाव थे तो मैं भावविभोर!
समय ने अंगड़ाई ली और मेरे ऊपर चादर पड़ गया,
विद्या, अध्ययन, और चलन सीखने का। मैं भी कोटि कोटि उसे छूकर निकल गई घर से। वो कभी धुंधला नही हुआ। वो वहीं था साक्षात समक्ष बिना परिवर्तन मेरे हर परिवर्तन का दर्शक। कई बार मुलाकात हुई पर क्षणिक रह गई। उसकी वो मंद मुस्कान नही बदली पर मैं,
मैं खिलखिलाती नही थी, मैं सोच समझ कर हँसती थी।
मैं दिल खोल कर रोती नही थी, बस सोच सोच में आँखें गीली हो जाती थी 
मैं मैं नही थी, मैं यौवन की घोर दशा से प्रताड़ित अपने स्नेह को नही पहचान पाई। मैं उसको नही पहचान पाई।

और आज इतने दिनों बाद लौटी हूँ तो सब कहते हैं, "बिटिया अपने कन्हैया ले आओ".
मैं उठाने लगी, वो फिर भी मुस्कुरा ही रहा था।
अतुलित, प्रज्ज्वलित, सादगीपूर्ण, वह चंचल चितवन आज भी उसी शरारत से निहार रही थी।
मानो फिरसे बचपन लौट आया हो। 
बड़े दिन से घर पर थी, पर आज लगा है कि मेरा घर लौट आया है।

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