सुना था सपनों की उम्र का हमेशा से तक़ाज़ा रहता है।
कभी जब हम बड़े हो जाते हैं,
तभी बचपन में देखे सपने ज़हन से चिंघाड़ते हैं।
देखते देखते तक़दीर कुछ बेतहाशा सी दौड़ पड़ती है, कमासुत होने की होड़ में हर अरमान को पीछे छोड़ चलती है।
यूँ तो हमे लगता था पिंजरा हम हैं, कैदी हमारे सपने,
पर ध्यान तो दो मित्र, संदूक में हम सब ही बंद हैं।
और सपने बाहर खड़े कबसे हमे पुकार रहे हैं।
देखो शायद कल तुम उनसे मिल लो,
इसी उम्मीद में नाच रहे हैं।
चलो आज एक अपराध कर ही देते हैं,
अंजान को खत लिख ही देते हैं।
वो बस आ भर जाए इसकी चाभी लेकर,
हम सपनों से मिल लेंगे,
आँखों के अंदर रखे उस बेहोश से पल को बाहर निकालना जो है,
अब जो झूठ है उसे टालना तो है,
मित्र करामात करते हैं चलो,
हार को जीत लेते हैं,
खुद पर बीत लेते हैं,
सहानुभूति के पर्दों को ज़रा किनारा करते हैं,
स्वप्न पुकार रहे हैं, उन्हें अपने पास खींच लेते हैं।
कभी जब हम बड़े हो जाते हैं,
तभी बचपन में देखे सपने ज़हन से चिंघाड़ते हैं।
देखते देखते तक़दीर कुछ बेतहाशा सी दौड़ पड़ती है, कमासुत होने की होड़ में हर अरमान को पीछे छोड़ चलती है।
यूँ तो हमे लगता था पिंजरा हम हैं, कैदी हमारे सपने,
पर ध्यान तो दो मित्र, संदूक में हम सब ही बंद हैं।
और सपने बाहर खड़े कबसे हमे पुकार रहे हैं।
देखो शायद कल तुम उनसे मिल लो,
इसी उम्मीद में नाच रहे हैं।
चलो आज एक अपराध कर ही देते हैं,
अंजान को खत लिख ही देते हैं।
वो बस आ भर जाए इसकी चाभी लेकर,
हम सपनों से मिल लेंगे,
आँखों के अंदर रखे उस बेहोश से पल को बाहर निकालना जो है,
अब जो झूठ है उसे टालना तो है,
मित्र करामात करते हैं चलो,
हार को जीत लेते हैं,
खुद पर बीत लेते हैं,
सहानुभूति के पर्दों को ज़रा किनारा करते हैं,
स्वप्न पुकार रहे हैं, उन्हें अपने पास खींच लेते हैं।
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