bachpana
काफ़ी दिनों बाद खुद में उतरी हूँ,
टूटी, बिखरी और बिखरे अंग से रंग निचुड़ता हुआ।
मैं अक्खड़पने में फिरसे जा पहुँचीं अपनी अम्मा के पास। वही रसोई के धुएँ में मसालों की सुगंध में खुद का हाथ जलाते हुए वो मुस्कुराई।
गरियाते हुए,
जो कि बिना किसी बात का रिवाज़ है,
बोली तुम मेरी लगती ही नही हो।
अब यह तो महज़ एक बात थी जिसका दिल से जुड़ाव भी नही था,
पर तकरार हुआ उसी समय मेरे भावों और तनावों में।
बचपन उछल कर बोल पड़ा,
हाँ तो?
मैं खुद जैसी हूँ।
अच्छा है ना,
दोनों अलग अलग हैं,
एक दूसरे को एक दूसरे में बाँट सकते हैं।
बोल उठी वो झड़पते हुए,
समय नही है,
किसी भी चीज़ का अब तो बिटिया।
मैंने कहा, अरे क्या बात करती हो माते,
अभी तो ढेरों दिन पड़े हैं।
कहती हैं वो, तुम्हारे पास हैं,
मेरे पास ज़िम्मेदारी है बस।
मैं बोलने चली थी कुछ,
इतने में वो जल्दी से बोल पड़ी,
अब श्राप मत देना।
मेरी ज़िंदगी छोटी अच्छी है,
चलो आओ गरम रोटी खाओ,
बिटिया,
सर सहला देती हूँ।

मेरा दिल यूँही मसोस्ता रह गया।
बचपन भयभीत होकर चुप हो गया।
माँ तो माँ ही बनी रही।

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