एक बात मेरे ज़हन से चल तो देती है,
पर होठों पर बैठती नहीं है।
जितना भी द्वंद्व हो व्यवहार और सोच में,
कभी ऐंठती नही है।
वो बात मुझे "मैं" बनने पर मजबूर कर जाती है,
मेरे हर सच को मंज़ूर कर जाती है।
कितना सफ़ेद है सब बाहर,
और कितना कोकिल सा है मन।
यह मुझसे मेरी बग़ावत,
औरों को बेक़सूर कर जाती है।
माना कि थोड़ी चंचल हूँ,
भँवरों सी मंडराती हूँ।
पर एक अपने पुष्प की अभिलाषा तो किताबों को भी हो जाती है,
बस एक यह इच्छा मुझमें,
मुझे भीड़ में अकेला कर जाती है।
माना कि मैं स्वछंद सी टहल रही थी बाध्य सी दुनिया में,
पर छंद हूँ तो कविता तो बनना ही है न?
किसी किसी छंद के साथ रमना ही है न?
मैं किसी छंद के साथ बैठ न पाई तो क्या होगा?
जाने मेरे शब्दों का किसके शब्दों के साथ ब्याह होगा?
हाँ वो जो बात चलती है जब ज़हन से,
मेरा रोम मचल उठता है।
समय वास्तविक है?
यह पूछने चल उठता है।
मेरी जिह्वा ख़ुद को अभागन समझ बैठती है,
मेरी इच्छाएँ स्वयं को सुहागन समझ बैठती हैं।
कैसे एक बात की गहराइयों पर ख़्वाब पल उठता है?
मुझे कभी कभी पलकों पर बैठा ख़्वाब भी खल उठता है।
माना कि नैन, नक्श और अठखेलियों वाला खेल किसी पुरानी कहानी सा मन में दब गया है,
मुझ पर तो बस गेहुआँ रंग फब गया है।
मैं बात को दाँतों के बीच दबाकर तुम्हारे इंतज़ार में बैठी थी,
तू मुझसे होकर कब गया है?
मैं निःशब्द हो गई तू जब गया है,
मानो मुझसे गुज़र कर रब गया है।
मेरे वक्ष के भीतर एक दुल्हन है,
मनमोहक यूँ कंचन वन है।
झींगुर सी यह बात मेरी,
छन छन मुझमें ही करती है।
अंदर उतनी कर्कश है,
जितना बाहर आने से डरती है।
बाहर जितना श्वान हूँ मैं,
गिलहरी उतना अंतर्मन है।
मेरे वक्ष में मानों एक छोटा से आँगन है।
आज होंठ सूख कर मुस्कुरा रहे हैं,
उन्हें आप्पति इस बात की है कि बात चल कर उन तक न आई है,
पर संतुष्टि इस बात पर है कि यह बात किसी को समझ भी न आई है।
आज मेरे मन के आँगन में बधाई ही बधाई है।
अच्छा है ज़हन से चल कर बात होठों तक पहुँचती नही है,
अच्छा है मेरी चिड़िया मुझमें रहती है कहीं और चहकती नहीं है।
अच्छा है मेरी नियत प्रेम के समक्ष बहकती नही है।
अच्छा है मेरी सोच कहीं और महकती नहीं है।
पर होठों पर बैठती नहीं है।
जितना भी द्वंद्व हो व्यवहार और सोच में,
कभी ऐंठती नही है।
वो बात मुझे "मैं" बनने पर मजबूर कर जाती है,
मेरे हर सच को मंज़ूर कर जाती है।
कितना सफ़ेद है सब बाहर,
और कितना कोकिल सा है मन।
यह मुझसे मेरी बग़ावत,
औरों को बेक़सूर कर जाती है।
माना कि थोड़ी चंचल हूँ,
भँवरों सी मंडराती हूँ।
पर एक अपने पुष्प की अभिलाषा तो किताबों को भी हो जाती है,
बस एक यह इच्छा मुझमें,
मुझे भीड़ में अकेला कर जाती है।
माना कि मैं स्वछंद सी टहल रही थी बाध्य सी दुनिया में,
पर छंद हूँ तो कविता तो बनना ही है न?
किसी किसी छंद के साथ रमना ही है न?
मैं किसी छंद के साथ बैठ न पाई तो क्या होगा?
जाने मेरे शब्दों का किसके शब्दों के साथ ब्याह होगा?
हाँ वो जो बात चलती है जब ज़हन से,
मेरा रोम मचल उठता है।
समय वास्तविक है?
यह पूछने चल उठता है।
मेरी जिह्वा ख़ुद को अभागन समझ बैठती है,
मेरी इच्छाएँ स्वयं को सुहागन समझ बैठती हैं।
कैसे एक बात की गहराइयों पर ख़्वाब पल उठता है?
मुझे कभी कभी पलकों पर बैठा ख़्वाब भी खल उठता है।
माना कि नैन, नक्श और अठखेलियों वाला खेल किसी पुरानी कहानी सा मन में दब गया है,
मुझ पर तो बस गेहुआँ रंग फब गया है।
मैं बात को दाँतों के बीच दबाकर तुम्हारे इंतज़ार में बैठी थी,
तू मुझसे होकर कब गया है?
मैं निःशब्द हो गई तू जब गया है,
मानो मुझसे गुज़र कर रब गया है।
मेरे वक्ष के भीतर एक दुल्हन है,
मनमोहक यूँ कंचन वन है।
झींगुर सी यह बात मेरी,
छन छन मुझमें ही करती है।
अंदर उतनी कर्कश है,
जितना बाहर आने से डरती है।
बाहर जितना श्वान हूँ मैं,
गिलहरी उतना अंतर्मन है।
मेरे वक्ष में मानों एक छोटा से आँगन है।
आज होंठ सूख कर मुस्कुरा रहे हैं,
उन्हें आप्पति इस बात की है कि बात चल कर उन तक न आई है,
पर संतुष्टि इस बात पर है कि यह बात किसी को समझ भी न आई है।
आज मेरे मन के आँगन में बधाई ही बधाई है।
अच्छा है ज़हन से चल कर बात होठों तक पहुँचती नही है,
अच्छा है मेरी चिड़िया मुझमें रहती है कहीं और चहकती नहीं है।
अच्छा है मेरी नियत प्रेम के समक्ष बहकती नही है।
अच्छा है मेरी सोच कहीं और महकती नहीं है।
इतनी सुंदर कविता लिखने के लिए एक बहुत सुंदर मन कि आवश्यकता है जो आपका है।
ReplyDeleteधन्यवाद।
तुम्हारी यह रचना तो बहोत शुद्ध शब्दोमें वर्णीत है। बहोत ही अप्रतिम।
ReplyDeleteYou described her soal, her inner words very precisely and in a clean words. Awesome����