aakrosh

आक्रोश वह है जो आज स्वाभाव में है! मेरी भाषा में आक्रोश वह है जो कभी नेत्रों को नम नहीं कर के गया! आक्रोश वह है जो एक सरल से इंसान को खोखला करता गया ! आक्रोश तो इंसान के ह्रदय के एक कोने से दूसरे कोने तक कब पलते पलते बड़ा हो जाए पता नहीं! एक बड़ी बात तो अश्रुसमर्पित हो जाती है पर उस छोटी सी बात का क्या जिसपर व्यक्ति का ध्यान भी ध्यान न दे पाया! कब दिल से लगी, कब उस बात से दिल को चोट लगी,कब घाव हुआ और कब घाव बढ़ गया! सब क्षणिक होता है| 

व्यक्ति कर्म करता है और कर्मों के पीछे भागता है, कर्म के फल से डरता है, और फिर खुद में झुंझलाता है| कौन  कहता है की सड़क के किनारे बैठा व्यक्ति बेघर है; नहीं वह बेघर नहीं है उसके पास भी एक घर है| व्यक्ति एक घर ही तो है जिसका ठिकाना नहीं पर घर है, यहाँ हर दिन सट्टे लगते हैं कि आज ऐसा क्या होगा जिससे वह मुस्कुराएगा या ऐसा क्या होगा जिससे उदासीनता उसे घेर लेगी| व्यक्ति घर है भावों का, व्यक्ति संगम है कई ऐसी सरिताओं का जो कुछ तेज़ गति से आ रही होती हैं या तो काफ़ी धीमी गति से| ये भाव भिड़ते हैं आपस में और फिर शांत हो जाते| जब भिड़ते तब आक्रोश होता है, दर्द होता है, कई बार तो यह घर टूटने को होता है| पर फितरत है चीज़ों की छत के नीचे रहने की, तो सुधार आता है, पर आक्रोश से सब टूट जाता है| आधारस्तंभ चाहिए होता है, व्यक्ति चाहिए होता है| और सबसे बड़ी, ममता चाहिए होती है| एक आँचल में छुपने का स्थान चाहिए होता है|

 बस आक्रोश भी तो बच्चा सा है, चुप हो जाता है| 

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