स्याह करना काग़ज़ों को तो बस खेल है, जो हर कोई खेलता है आजकल।
मैं भी शामिल हूँ इस खेल में, पर मेरे कारण अलग हैं। मैं इस एक काफ़िले के साथ चली हूँ पर नियमावली अपनी बना रखी है। कुछ है जिस तक पहुँचना है, और उस तक पहुँचने के लिए ही सब लिखित होता जा रहा है। इच्छा मेरी स्वेच्छा बनती जा रही है। कितने पन्ने गल चुके हैं, फट चुके हैं। पर वो अंदर की हिचक ख़त्म नही हो रही है, मानो कला खुद को तोड़ तोड़ कर उभारने की कोशिश कर रही हो।
मेरे अंदर जो बातें बह रही हैं, वो मेरे मस्तिष्क से सीधे मेरी उंगलियों तक आती है, और तुरंत कलम से होकर, स्याही में मिलकर काफी कुछ बोल जाती हैं।
कुछ खास शुरुआत नही है, शायद कुछ खास अंत भी न हो, पर यह स्याह सफ़र उम्दा है। और मेरा सफ़र अगर लिखना है, तो मेरे साथ थोड़ा सा जुड़ने के लिए आपका कार्य मेरे सफ़र में पढ़ना है।
इससे पहले कि मैं ख़त्म हो जाऊँ,
मुझे आँखों के सहारे खुद में उतार लो,
ज़हन में रखो,
या मस्तिष्क में भार लो।
मैं तो उभर रही हूँ, खुद को भी उभार लो।
Aaha
ReplyDeleteBahut badhiya
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