khwaab

इनायत तो ख़्वाबों में बरसती है जब तुम मिल जाते हो ।
पर क्योंकि सपने पूरे नही होते, 
यह सोच कर हम ख़्वाब को ख़्वाब समझ कर टाल देते हैं,
तुमको सच समझ कर ख़्वाबों से निकाल देते हैं।
हक़ीक़त में तो ख़्वाब का इंतज़ार करते हैं और ख़्वाबों में हक़ीक़त को ख़याल देते हैं।
हम इतने उलझे हैं कि कहीं तुम मिल न जाओ,
कि ख़्वाबों में भी हमसे न मिलने की तुम्हे मिसाल देते हैं।
ख़्वाबों में मुलाक़ात की बेसब्री और उसके होने के डर से,
रोज़ ख़ुद को बेढंगे सवाल देते हैं।
इत्तेफ़ाक़ जो आँखों के नीचे होता है,
वो महज़ झूठ है,
सच नहीं, यही सोच कर रोज़ मुहाल होते हैं।
मिलने का अंदाज़ सोच कर यूँ परेशान से हो जाते हैं कि,
ख़्वाबों में मिलते ही बेहाल होते हैं।
उफ़,
तुम सही कह कर गए थे,
हम थोड़े बवाल जैसे हैं।

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