Majhdaar
किसी किसी रोज़ मैं भी किनारे पर नही रहता, मझधार में फँस जाता हूँ,
कभी कभी केवट को कहता हूँ तो कभी खुद नाव खेता जाता हूँ।
मैं खुश नही होता जब तक सूरज की रोशनी पानी में उतर कर मुझ तक नही आती है,
मैं तब तक शाँत नही बैठता जब तक एक लहर चंचल नही हो जाती है।
मुझे मल्लाह कहो या अल्लाह कहो,
मैं सबके जैसे ही कभी कभी झुंझला जाता हूँ।
मैं भी चमड़ा ही हूँ, मेरे पास भी सीने में जीता जागता जानवर है,
बस यही सोच कर घबरा जाता हूँ।
इंसान की नीयत मुझमे है,
पर सीरत खुदा की अच्छी लगती है,
इसी उलझन में मैं अपनी नाव में बैठ कर दूर निकल जाता हूँ,
मझधार में फँस जाता हूँ।
मैं वहाँ चिल्लाता हूँ, शोर मचाता हूँ,
और सबको यह पता है,
मैं हर ढलती शाम में घूमने जाता हूँ,
और शायद किसी ख़ुदा सी सूरत से मिलकर लौट आता हूँ।
और मैं,
हर रोज़ मझधार में फँस जाता हूँ।

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