Shikayat

मैंने सोचा चलो आज शिकायत लिखते हैं, भूली बिसरी हर बात की उलाहना देते हैं। पोथे पर्चे बटोर कर बैठ ही गई हूँ आज। कि लिखती हूँ हर सोची समझी चाल को, हर बेहाल हुए हाल को। हर समय को परख परख कर सोचने लगी। हर अंधेरे कोने में गई जहाँ से होकर आई थी। मैंने उस मर्म को, उस आह को जाँचने की कोशिश की। हर उस बात पर जिस पर उखड़ी थी, उसे परखने का प्रयास किया।

जिस प्रकार नदी चट्टानों को तोड़ कर तो निकलती ही है, मिट्टी भी संग ले जाती है, उसी प्रकार समय, मेरा विश्वास तोड़ कर निकला है पर घाव सारे अपने साथ ले गया है। जिस प्रकार यह मिट्टी उपजाऊ सी जाकर भारत के उत्तरी क्षेत्रों में बस जाती है, उसी प्रकार मैं आज स्थिर भाव पर अस्थिर चित्त लेकर समय में बस धीमे धीमे चल रही हूँ।

हर पिछड़े अंधेरे कोनों में आज थोड़ी थोड़ी सी रोशनी है, जैसे चोटों ने जगह बनाई है रोशनी के लिए।

आज इतनी सहज और संदर्भित हूँ कि अभियोग लिखा ही नही जा रहा है। जितना कोरा पन्ना तब था, उतना ही अभी है। बिल्कुल सफेद। स्याही की एक बूंद नही टपकी है। मैं तो विहार कर आई पीछे के पलों में, मैं अपना दिल बेच कर, खरीद कर सब देख भाल कर आज बस हवा का इंतज़ार कर रही हूँ। वह हवा जो बस फिर से किसी वजह को समक्ष लाकर खड़ा करे, जिसमें मुझे उलझन हो, मसोस हो, अफसोस हो, शिकायत हो। और जब मैं निकलूँ तो बस कोई आईना सामने रख दे जिसमे मेरा हृदय सुर्ख दिखे। और वह सुर्ख मुझे पता हो कि सुंदर है, सलोना है। मेरे कल के आचरण का श्रृंगार है।

बस इतना अनुमान सा लग गया है कि शिकायत जीने में जो रस है वह उलाहना देने में कहाँ है।
उपालम्भ के अवशेष आज तक आते आते गीत बन चुके हैं। मेरे हर समझ के दायरे के संगीत बन चुके हैं।
मैने पोथे अब किनारे कर दिए हैं मुस्कुरा कर, क्योंकि अब गीत को जीना है। आख़िर 'मेरी शिकायत' आज सज के मुझसे मिलने आई है।

उपालम्भ, उलाहना, अभियोग- शिकायत

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