Shila Si Vatsalya
उस छोटी सी लड़की को, बगल में बैठे देखा है,
संस्कार की गाड़ी में उतरते चढ़ते देखा है।
आगे पहुँची दुनिया को लालच की नज़र से देखा है,
छोटी सी गुड़िया ने खुद को साड़ी में चलते देखा है।
बस कलम लिए उम्मीद भरी वह,
शर्म लिए कुछ बैठी है,
शब्दों से लड़े या चूड़ी से,
हर बात पता लिए बैठी है।
वह आँगन की गुड़िया अब भी आँगन की लक्ष्मी बन कर बैठी है।
घूँघट से पर्दे के पीछे अपने सब सुख हर कर बैठी है।
वह नाज़ुक सी अनमोल है,
पर पत्थर लेकर बैठी है,
क्या सोना क्या हीरा होगा,
वह खुद कुंदन बन कर बैठी है।
सपने आते ही आँखों में,
आँखों को बंद कर बैठी है।
जो भी कहो दुनिया वालों,
नज़रे उसकी नीची हैं,
पर हम सब के हृदय में चढ़ कर बैठी है,
कह लो वह मानस में उतर कर बैठी है।
शांत जीव वह शोर मचाती,
ज़हन में छुप कर बैठी है।
संताप नही कोई रोष नही,
बस बेसब्री से बैठी है,
उस कच्चे घर की नींव को अब तक
पक्के में बदल कर बैठी है।
कैसे कहूँ अकथित पीड़ा को,
जो वह हँसते हँसते लेकर बैठी है।
सम्मान भला क्या शब्द हुआ,
प्रतिष्ठा भी निकृष्ट हुई,
वह कविता है एक सुंदर सी,
बाल किताब में लिख कर बैठी है।
संक्षेप नही संक्षिप्त है वह,
फिर नाम मात्र बस बैठी है,
जो भी कहो ऐ मित्रों,
वह पुतला बन कर बैठी है,
तुम पूजो तो वह देवी है,
वरना बस मिट्टी सी वह ढहती है,
वह चुप सी रहती है।
वात्सल्य रस कब ममता बनी,
यह संदर्भ गीत में लिखती है।
वह नज़रों में ही बसती है
वह नज़रों में ही बिकती है।
उदारता की सम्पूर्ण कहानी मूरत बन कर बैठी है।


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