अनभिज्ञ और अंजान सी मै ,
अपना परिचय बतलाती हूँ |
कलम उठाकर जान बूझ्बूझ कर,
प्रश्न एक उठाती हूँ |
मै माँ भी बनी, साथी भी बनी ,
तेरी प्रिया बनी, जननी भी बनी |
फिर भी मेरी परिभाषा,
मुझसे न जानी जाती है |
क्यों मेरी ही दुनिया, मुझ पर हावी हो जाती है|
पहले सरहद पर मैंने,
भाई-पिता को भेजा था |
अश्रुमुक्ता को वारा था,
और न कोई दूजा था |
खुद को मैंने उस सरहद पर जान गंवाते देखा है ,
भारत के चरणों में खुद को साँस लुटाते देखा है |
माता का स्नेह लिए, झाँसी की रानी बनते देखा है |
भार्या के स्थान पर, जोधा को तलवार उठाते देखा है |
मूक रहे थे दर्शक भी, जब in सब की तलवार चली |
बागडोर इनके हाथों में, और किसी की नहीं चली |
बहूत दिनों की चर्चा थी फिर यहाँ प्रथा एक खूब चली ,
एक डंका बजा यहाँ पर, वह देश चलाने निकल पड़ी |
खूब विचारा लोगों ने, जनता भी थी शांत कड़ी ,
देखत-देखत लोगों के वे चाँद-विहार पर निकल पड़ी |
आज भी इक कमरे में, हाँथों में कलम उठाए बैठी हूँ |
इन पन्नों पर स्याही से, एक नगमा लिख कर बैठी हूँ |
सम्मान के पद पर खड़ी हुई, गुहार लगाकर बैठी हूँ |
भविष्य को खुद से अलंकृत करूँ, यह अरमान लगाये बैठी हूँ |
मात-पिता का स्तम्भ बनूँ, चुनने योग्य अवलम्ब बनूँ |
मै मित्र बनूँ या शत्रु बनूँ, जो मुग्ध करे वह इत्र बनूँ |
प्रार्थी हूँ कि मेरी भी परिभाषा गढ़ी जाए,
मेरी भी कहानी किसी महफ़िल में पढ़ी जाए |
अपना परिचय बतलाती हूँ |
कलम उठाकर जान बूझ्बूझ कर,
प्रश्न एक उठाती हूँ |
मै माँ भी बनी, साथी भी बनी ,
तेरी प्रिया बनी, जननी भी बनी |
फिर भी मेरी परिभाषा,
मुझसे न जानी जाती है |
क्यों मेरी ही दुनिया, मुझ पर हावी हो जाती है|
पहले सरहद पर मैंने,
भाई-पिता को भेजा था |
अश्रुमुक्ता को वारा था,
और न कोई दूजा था |
खुद को मैंने उस सरहद पर जान गंवाते देखा है ,
भारत के चरणों में खुद को साँस लुटाते देखा है |
माता का स्नेह लिए, झाँसी की रानी बनते देखा है |
भार्या के स्थान पर, जोधा को तलवार उठाते देखा है |
मूक रहे थे दर्शक भी, जब in सब की तलवार चली |
बागडोर इनके हाथों में, और किसी की नहीं चली |
बहूत दिनों की चर्चा थी फिर यहाँ प्रथा एक खूब चली ,
एक डंका बजा यहाँ पर, वह देश चलाने निकल पड़ी |
खूब विचारा लोगों ने, जनता भी थी शांत कड़ी ,
देखत-देखत लोगों के वे चाँद-विहार पर निकल पड़ी |
आज भी इक कमरे में, हाँथों में कलम उठाए बैठी हूँ |
इन पन्नों पर स्याही से, एक नगमा लिख कर बैठी हूँ |
सम्मान के पद पर खड़ी हुई, गुहार लगाकर बैठी हूँ |
भविष्य को खुद से अलंकृत करूँ, यह अरमान लगाये बैठी हूँ |
मात-पिता का स्तम्भ बनूँ, चुनने योग्य अवलम्ब बनूँ |
मै मित्र बनूँ या शत्रु बनूँ, जो मुग्ध करे वह इत्र बनूँ |
प्रार्थी हूँ कि मेरी भी परिभाषा गढ़ी जाए,
मेरी भी कहानी किसी महफ़िल में पढ़ी जाए |
Great, really heart touching
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