आज मैं फिर से उन सड़कों से गुज़र रहा हूँ, जो कल गलियाँ होती थीं।
जहाँ ढोलक मंजीरों संग रंग रलियाँ होती थीं।
मौका भी खुशामद था,
पर हर घर से एक टुकड़ा खुशी का बरामद था।
जुएँ का मद पहले कितना खलता था,
हर छज्जे पर एक मधुशाला पलता था।
पहले चाय का शाम से सिलसिला चलता था।
सफाई का काम एक दूसरे पर टलता था।
कोई पैसा डुबाता था तो कोई उठाता था।
कोई कंजूसी में हाय देता तो कोई पैसों की अकड़ जताता था।
बाज़ार तो ऐसा लगता था जैसे दुल्हन आने वाली हो,
सब इतने उधा गए थे जैसे दीवाली बस अभी आँगन से ठुमक कर जाने वाली हो।
एक दो मुशायरा बाँट लेते थे,
तीन चार शाम काट लेते थे।
न चाहते हुए भी घर का राशन जाँच लेते थे,
चूल्हों की आँच नाप लेते थे।
उस वक़्त बाज़ारो में सरसों का तेल और घी ख़ूब बिकता था,
हर कोई पहले से इसके लिए पैसे बचाते दिखता था।
मिट्टी के खिलौनों से घरौंदा सजाते थे,
जो बत्तियां घर पर लगती थी, उनमे से एक लड़ी पापा से माँग लाते थे।
बन्दूक में चुटपुटिया दगाते थे,
वो साँप वाला पटाखा कभी कभी बस देखते जाते थे।
मुझे याद है गाँव जहाँ चकाचौंध दीपक का होता था,
मोमबत्तियों का भी ज़माना होता था।
बीरर बीरर सी लड़ियाँ घरों में टाँग दी जाती थी,
औकात बत्तियों से नही भोजन से तोलते थे,
खुली हवा में बातें जी भर कर बोलते थे।
मोम पिघल जाती थी,
दीपक बर जाते थे
पर शामें जलती रहती थीं।
उस रौनक से मेरी जीवनी चलती रहती थी।
बदलाव आया है।
एकदम से नहीं।
ताश से गुज़र कर, गलियों से निकलकर,
आसमान पर चढ़कर, छज्जों से उतरकर।
आज मिट्टी का तेल जल जला रहा है,
जिसे शुभ कहते थे वो अशुभ करता जा रहा है।
जो मकानों पर आम के पत्ते सुखद सोच कर लगाते हैं
आज उनकी उत्पत्ति में जो विघ्न है उसे कहीं छुपाते हैं।
मुझे लगता है जो पटाखों की धमक किसी की चहक की परिचायक होती है,
वही किसी किसी के मौन के चयन की कारक होती है।
मैं पहले उजालों से गुज़रा करता था,
अब मटमैले धुएँ से गुज़रता हूँ।
पहले झूमता चलता था ठहाकों पर,
अब शोर से डरता हूँ।
मेरे खाली छज्जे पर जहाँ दीपक एक कोने में जल रहा है,
इस छत के नीचे अब tv पर दीवाली का प्रोग्राम चल रहा है।
सबकी घरों की टेबल पर मिठाई का डब्बा बंद है,
मोहल्लों के किनारे किनारे सींकों का समा मंद था।
पहले मैं धुआँ हो जाता था,
अब मैं धुआँ लेता जाता हूँ।
जिसे प्रदूषण कहते हो तुम,
मैं भी उसी का भागीदार बनता जाता हूँ।
मैं कहता ही नही कि नही, मैंने कुछ नही किया,
क्योंकि मैं यह पूछता नहीं कि तुमने यह क्यों किया?
वैसे तो मैंने कुछ नहीं किया,
कुछ भी नही किया।
मैं चकरगिन्नियों के घूमने पर पहले डोल जाता था,
अब मैं तो कभी कभी अनार के दगने पर बोल जाता हूँ।
अब मुझे आसमान के थोड़ा नीचे और ज़मीन से थोड़ा ऊपर एक कंबल दिखता है काला सा जिसको चीर कर आसमान पर मानव ख़ुद के तारे जगाता है।
जो आराम से सड़कों के आश्रय में सोते हैं,
उन्हें अचानक जगाता है,
दूसरे घर को भगाता है।
अरे मेरा दिल दुख गया है उस कलरव पर जो कल मुझे
प्रेम में विचरने पर मजबूर करता था।
आज वह कलरव रात के तीन बजे होता है क्योंकि पंछी समझ नही पाते हैं,
और धमक से किसी उठ जाते हैं।
उड़ते नहीं हैं,
उस कंबल के नीचे नालियों में फुदकते जाते हैं।
मेरा मन क्रंदन करता है,
जिस दीवाली में वंदन करता था,
आज उसी दिन कोई कोई कहीं कहीं मरता है।
मुझे बैर नही होगा अब गर तुम जुएँ में डूब जाओ,
या मद को ख़ूब गाओ।
गणेश लक्ष्मी पूजो या बस गरीबी का अफ़सोस मनाओ।
मधुमेह में हल्की मीठी मिठाई खाओ,
दीवाली में मत नहाओ।
बस जो माचिस की तीली की आखरी आग जलती है,
उससे अपनी इंसानियत जलाओ।
हम शहर के एक कोने से तुमसे कह रहे हैं,
प्रदूषण कम फैलाओ।
जहाँ ढोलक मंजीरों संग रंग रलियाँ होती थीं।
मौका भी खुशामद था,
पर हर घर से एक टुकड़ा खुशी का बरामद था।
जुएँ का मद पहले कितना खलता था,
हर छज्जे पर एक मधुशाला पलता था।
पहले चाय का शाम से सिलसिला चलता था।
सफाई का काम एक दूसरे पर टलता था।
कोई पैसा डुबाता था तो कोई उठाता था।
कोई कंजूसी में हाय देता तो कोई पैसों की अकड़ जताता था।
बाज़ार तो ऐसा लगता था जैसे दुल्हन आने वाली हो,
सब इतने उधा गए थे जैसे दीवाली बस अभी आँगन से ठुमक कर जाने वाली हो।
एक दो मुशायरा बाँट लेते थे,
तीन चार शाम काट लेते थे।
न चाहते हुए भी घर का राशन जाँच लेते थे,
चूल्हों की आँच नाप लेते थे।
उस वक़्त बाज़ारो में सरसों का तेल और घी ख़ूब बिकता था,
हर कोई पहले से इसके लिए पैसे बचाते दिखता था।
मिट्टी के खिलौनों से घरौंदा सजाते थे,
जो बत्तियां घर पर लगती थी, उनमे से एक लड़ी पापा से माँग लाते थे।
बन्दूक में चुटपुटिया दगाते थे,
वो साँप वाला पटाखा कभी कभी बस देखते जाते थे।
मुझे याद है गाँव जहाँ चकाचौंध दीपक का होता था,
मोमबत्तियों का भी ज़माना होता था।
बीरर बीरर सी लड़ियाँ घरों में टाँग दी जाती थी,
औकात बत्तियों से नही भोजन से तोलते थे,
खुली हवा में बातें जी भर कर बोलते थे।
मोम पिघल जाती थी,
दीपक बर जाते थे
पर शामें जलती रहती थीं।
उस रौनक से मेरी जीवनी चलती रहती थी।
बदलाव आया है।
एकदम से नहीं।
ताश से गुज़र कर, गलियों से निकलकर,
आसमान पर चढ़कर, छज्जों से उतरकर।
आज मिट्टी का तेल जल जला रहा है,
जिसे शुभ कहते थे वो अशुभ करता जा रहा है।
जो मकानों पर आम के पत्ते सुखद सोच कर लगाते हैं
आज उनकी उत्पत्ति में जो विघ्न है उसे कहीं छुपाते हैं।
मुझे लगता है जो पटाखों की धमक किसी की चहक की परिचायक होती है,
वही किसी किसी के मौन के चयन की कारक होती है।
मैं पहले उजालों से गुज़रा करता था,
अब मटमैले धुएँ से गुज़रता हूँ।
पहले झूमता चलता था ठहाकों पर,
अब शोर से डरता हूँ।
मेरे खाली छज्जे पर जहाँ दीपक एक कोने में जल रहा है,
इस छत के नीचे अब tv पर दीवाली का प्रोग्राम चल रहा है।
सबकी घरों की टेबल पर मिठाई का डब्बा बंद है,
मोहल्लों के किनारे किनारे सींकों का समा मंद था।
पहले मैं धुआँ हो जाता था,
अब मैं धुआँ लेता जाता हूँ।
जिसे प्रदूषण कहते हो तुम,
मैं भी उसी का भागीदार बनता जाता हूँ।
मैं कहता ही नही कि नही, मैंने कुछ नही किया,
क्योंकि मैं यह पूछता नहीं कि तुमने यह क्यों किया?
वैसे तो मैंने कुछ नहीं किया,
कुछ भी नही किया।
मैं चकरगिन्नियों के घूमने पर पहले डोल जाता था,
अब मैं तो कभी कभी अनार के दगने पर बोल जाता हूँ।
अब मुझे आसमान के थोड़ा नीचे और ज़मीन से थोड़ा ऊपर एक कंबल दिखता है काला सा जिसको चीर कर आसमान पर मानव ख़ुद के तारे जगाता है।
जो आराम से सड़कों के आश्रय में सोते हैं,
उन्हें अचानक जगाता है,
दूसरे घर को भगाता है।
अरे मेरा दिल दुख गया है उस कलरव पर जो कल मुझे
प्रेम में विचरने पर मजबूर करता था।
आज वह कलरव रात के तीन बजे होता है क्योंकि पंछी समझ नही पाते हैं,
और धमक से किसी उठ जाते हैं।
उड़ते नहीं हैं,
उस कंबल के नीचे नालियों में फुदकते जाते हैं।
मेरा मन क्रंदन करता है,
जिस दीवाली में वंदन करता था,
आज उसी दिन कोई कोई कहीं कहीं मरता है।
मुझे बैर नही होगा अब गर तुम जुएँ में डूब जाओ,
या मद को ख़ूब गाओ।
गणेश लक्ष्मी पूजो या बस गरीबी का अफ़सोस मनाओ।
मधुमेह में हल्की मीठी मिठाई खाओ,
दीवाली में मत नहाओ।
बस जो माचिस की तीली की आखरी आग जलती है,
उससे अपनी इंसानियत जलाओ।
हम शहर के एक कोने से तुमसे कह रहे हैं,
प्रदूषण कम फैलाओ।
सभी को शुभकामनाएं।।
Wow....so nicely written...
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