दशहरा कल ख़त्म हुआ है,
और मैं कहीं घूम नही पाई हूँ।
इतने रावण चटके इधर उधर,
पर पटाकों पर झूम  नही पाई हूँ।
पंडालों में न जाने कितनी माँएँ शोभित थी,
वो नौ दिन घर आई थी,
मेरी माँ तो इसी में गर्वित थी।
मैं तो पूरी नवरात्रि अपनी सोच से लज्जित थी,
आज में थी ही कहाँ, बस कल में सज्जित थी।

मुझे याद है जब हर बड़ा व्यक्ति मेरी मुट्ठी में दस रुपया बंद कर दिया करता था,
और मेरे गुल्लक का छोटा छेद मुझे काफ़ी तंग किया करता था।
उन अधबनी दीवारों से निकल कर मेले की तरफ़ उचकती हुई जाती थी,
कुछ लेना देना नही होता था फिर भी खुश हो जाती थी।
पहले चाचा, काका, दादा ठेलों पर होते थे,
तो खर्चा रुक जाता था,
मेरा रहा सहा ईमान,
मेलों में बिक जाता था।
शायद बचपन था तो भीड़ से नज़रें मिलाने की ज़ुर्रत और ज़रूरत दोनों नही होती थी।
पर अब रेशमी कपड़ों पर जब गोटेवाली चुन्नी डाल कर निकलती हूँ तो लगता है मेरी पक्की दीवारों में छेद होता तो वहीं से देख लेती,
अपने बचपन को मेले में उछलता कूदता देख, आँखें सेंक लेती।
पर अब लगता है भीड़ को व्योम बना दूँ,
और नज़रों को ही राई लोन बना दूँ।
चौराहों पर सजे रावण और पण्डाल अब मुझे सर झुकाने पर मजबूर कर रहे हैं,
दयनीय है वह राम, जिसका अभिनय आज के लोग कर रहे हैं।
मेरा अक्खड़ मन अब झुका झुका सा चलता है,
जो पहले घर को न चलता था,
आज स्फूर्ति से दौड़ पड़ता है।

वक़्त बदला है या व्यवहार,
या फिर ईश्वर या त्योहार?
अब मेलों से मैं सिर्फ़ अनभिज्ञता के साथ गुज़र जाती हूँ,
वो मुझे इतना नकारता है, क्योंकि मैं नज़रों से नज़र मिलाती हूँ, तो कुछ और ही देखती हूँ, वातावरण को जी थोड़े पाती हूँ।

अब मेरे घर में हर तरफ़ छज्जे हैं,
देखो शायद मेरा मेला मुझ तक चल कर आए।
असम्भव को थोड़ा सा "संभवतः" वाला स्वाद चखाए।
मैं किसी दशहरे पर बैठ कर कविता न लिखूँ,
गुल्लक को तोड़ूं, और वहीं दिखूँ |

3 comments:

  1. I don't even know, if I am even capable or the right person, enough to comment something on such a master piece. Commendable. Simply Perfect. No words.

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  2. साल दर साल दशहरे मे रावन जलता है ,लेकिन अब ऐसे लगता है जैसे रावन नही राम जल रहा हो लोगो के भीतर से । बहुत अच्छा लिखा है आपने����

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