प्रिय हिमाचल,

काफ़ी दिन हो चले हैं और मैं तुमसे दूर कहीं तुम्हें याद कर रही हूँ। आशा करती हूँ तुम अपने जैसे होगे।
स्मृतियाँ भी कितनी अजीब होती है न, कभी पहाड़ सी समक्ष तन कर खड़ी होती हैं तो कभी नदी सी बहती चली जाती हैं।
एक रोज़ मुझे याद है कि मैं पहाड़ों के बीच बसे एक गाँव को निहारे जा रही थी पर चूँकि बचपना तब ज़्यादा था भाव अपना रास्ता भूल गए थे। मैं अपनी किसी चिंता की लक़ीर को उस सुंदर दृश्य में खींच रही थी और महज़ उसी लक़ीर को बार बार खींच कर मिटा रही थी। उस आसमान और ज़मीन के बीच दबे हुए गाँव की सुंदरता तो जैसे मेरे ह्रदय तक पहुँच ही नहीं रही थी। मैं कितनी ज़्यादा समाप्त हो चुकी थी उस आरम्भ में।  
मेरे हाथ में ठहरी हुई चाय की प्याली और उससे निकलता हुआ धुआँ जो कि यूँ प्रतीत हो रहा था कि उसने धुंध को जन्म दिया हो कब मेरे जीवन व्यापन का एक अटूट कारण बन गया पता ही नही चला। तुम्हारे तने हुए पहाड़ और उस पर गड़े हुए पेड़ सब लेने को तैयार थे। मैं कैसे अपने सर्वस्व को छोटे हिस्सों और किस्सों में बाँट कर तुम पर फेंका करती थी, कैसे मैं तीन चार लोगों के साथ कभी तुम्हारे समक्ष तो कभी तुम्हारी गोद में अपने शोर मचाते हुए दिमाग की संकीर्णता निकालती जाती थी, कैसे तुम वहाँ खड़े खड़े चुप चाप मुझे झेलते चले जाते थे। मैं हमेशा वापसी के वक़्त यही सोचती रह जाती थी  कि मेरा सारा क्रोध, सारी शिकायत कहाँ गिर गई है और तुमसे दूर जाती थी तो तुम्हारी चोटी की नोक पर बैठी शालीनता मुझे अपनी सी लगती थी। मैं फिर भी अनभिज्ञता की चरम सीमा को पार करके तुम्हारे अपनेपन को नकार देती थी। मेरी छोटी छोटी दिक्कतें जब काफ़ी ज़्यादा चीख़ती थीं तो तुम्हारे गर्भ की गर्माहट उस चीख़ को ख़ुद में दबा लेती थी। मेरे लड़की से युवती होने का सफ़र तुम्हारे सामने, तुम्हारे एहसास में पूर्ण हुआ है। तुम्हारी ओस से ढँकी हुई घास जब साफ़ धूप में सूखती थी तो मेरी एक नासमझ सोच रोज़ भाप बन कर उड़ जाती थी। शाम की लालिमा में ठहरी हुई समझ मेरा इंतज़ार करती थी। मेरी निरीहता मुझे उसे अनदेखा करने पर मजबूर कर देती थी। काफ़ी बार शाम उलझी हुई और बुझदिल सी जाती थी पर कभी कभी ऐसा हो जाता था कि मेरा खो जाना मुझे सही रास्ते दिखा दिया करता था। जैसे तुम्हारी पहाड़ियों की संकरी पगडंडी पर पहले चलते चले जाते थे तो भयग्रसित हो जाते थे, खोने का भय पर आदतन यह भान हो गया था कि काफ़ी देर खोने के बाद पता चलेगा कि सही रास्ता जल्दी आ गया। ठीक इसी तरह किसी किसी शाम जब मेरा स्वयं मुझमें ठहरता नहीं दिखता था, विकार मुझे खाने लगते थे तब तुम्हारे हृदय से छंटती हुई शाम मुझे खोई हुई नासमझी की जगह समझ पकड़ा जाती थी। मैंने अपने रंग बिरंगे जीवन के कुछ महत्वपूर्ण वर्ष तुम्हारे सानिध्य में गुज़ारे हैं। लोग मिले, जुले और बीत गए पर तुम्हारा मौन सब देख रहा था, शायद तुममे पितृत्व के साथ काफ़ी मैत्री का भाव भी था जो तुम सहज रुप से इतने बुज़ुर्ग होने के बाद भी मुझे सहन करते चले गए। जब मेरा प्रवास हो रहा था तुम्हारे गर्भ से तब मेरा मर्म सिर्फ़ पीछे मुड़ कर तुम्हें नहीं तुममें पली अबोध और क्षणभंगुर यादों को देख रहा था। तुम फिर भी मुझे स्थिर अलविदा दे रहे थे मुस्कुरा कर, तुम्हारी गोद एक बार भी नहीं डोली उस आखेट पर।

आज काफ़ी दिनों बाद मैंने एक नदी के किनारे अपना डेरा डाला है। बहुत दिनों तक धुएँ के सानिध्य में तुमको ढूंढा, तुमको धुंध में उंगलियों से बनाया। मेरा हृदय उम्र के साथ काफ़ी हल्का हो चला है चूंकि बूढ़ा होता हुआ शरीर या तो भारी दिल ले सकता है या भारी दिमाग। कई चाय के कुल्हड़ मिट्टी बन चुके हैं, कई बार यूँ हुआ कि नदी को देखकर तुम्हारे होने की अनुभूति हुई पर मैं इस एहसास को झकझोरती गई। मैं ज़िद पर अड़ी थी कि कहीं तुमको इन सबमें ढूंढ कर कम न आँक लूँ क्योंकि तुम्हारा प्रेम मुझे तुमसे दूर होने के बाद समझ आया तो अब तुम्हारे साथ और दग़ाबाज़ी अच्छी नहीं रहेगी।
मेरे दिमाग की समझ के साथ कई विकार जन्में इस बीच विषाद, भय, द्वेष आदि पर सब मुझे मुझ पर से फिसलते ही दिखे हैं। इतनी ममत्व की समझ मेरे आस पास किसको ही रही होगी?

एक सादी सी दोपहर के कोयल की शोर में मैं क्षितिज को छूती नदी के बीच खोया हुआ पहाड़ का टुकड़ा ढूंढ रही थी कि तभी यूँ हुआ कि एक हवा का झोंका उन लहरों से टकराया, वो लहरे मेरे पैरों से और वो हवा मेरे कानों से। मुझे तुम सुनाई दिए, मुझे तुम महसूस हुए। मुझे एकदम से भान हुआ कि ये बहते हुए तुम्हीं तो हो। मेरे विषाद में कितनी देर कोई टिका रहेगा, तुम पिघल गए मेरे विकारों की ग्रीष्मता में, अब बस मेरे भावों के संलग्न प्रयत्न से तुम यूँ ठहर ठहर के बहते हो। कितने दिन से मैं तुममें तुमको ही ढूंढ रही थी।
मैं भी कितनी मूर्ख हूँ, स्वयं ही तुम्हें ख़त्म होने पर मजबूर किया और तुमने मेरा मान रख कर, स्वयं में मेरा बचा कुचा सम्मान रख कर मुझे अंत तक जीने का प्रयत्न किया है। मुझे अपनी तनया की तरह प्रेम में सराबोर रखा है। मद्धम सी रोशनी पर जब पहाड़ छुपने लगते थे तो मुझमें डर जगने लगता था परंतु अब तुम खोते नहीं हो, तुम्हारे बहाव की आवाज़ मुझमें सदा सत्य प्रस्फुटित करती रहती है। अब तुम्हारे किनारे लगी हुई घास हमेशा गीली रहती है उसका गीला होना उसे चमकने पर मजबूर करता रहता है।  अब तुममें कोई संकरी गली नहीं है बस एक थल है जो काफ़ी नीचे है और एक किनारा जो दूसरी पार है। अब खोने की गुंजाइश कम है पर डूबने की संभावना ज़्यादा। तुम बदल कर आए हो, मुझसे सीख कर मुझे ही सिखाने आए हो।

तुमने अच्छा रिश्ता निभाया है, मैंने कभी तुममें माता पिता तो कभी साथी पाया है। कल शायद रेगिस्तान में भी तुमको ढूंढूंगी और स्वयं के हाथों से फिसलता पाऊँगी। मुझे विश्वास है मेरे सर्वस्व के हर विराम पर तुमको संभवतः ढूंढ पाऊँगी।
तुम शालीन, शीतल या चंचल जैसे भी मिलोगे, मेरा साथ देते ही मिलोगे। इस यक़ीन से मेरे हृदय में एक तेज जगा है। जो अनभिज्ञ सोच और चिंता की लकीरें अपना घर ढूंढ नहीं पा रही थीं आज वो वापस आ गई हैं। फिरसे बिना आकार प्रकार हवाओं में घूम रही हैं। आज निश्चिंत होकर बस बह रही हैं। काफ़ी भूलने भटकने के बाद आज सबको घर मिल गया है।

तुम्हारा मेरे भार तले पिघलने के लिए आभार। यूँही मुझे हर जगह मिलते रहना।

तुम्हारी शिष्या

आशा करती हूँ आप सबको अपना पिघलता हुआ पहाड़ जल्द ही समझ आ जाए।

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