हाँ, तो मुझे कभी कभी ऐसा लग जाता है कि कोई ये बताना ही नहीं चाहता कि उसे सच में कुछ नहीं आता और वो कितना बेवकूफ़ है। या अच्छे शब्दों में कहो तो कुछ समझ नहीं आता है, फिर भी अपने आपको इस समाज का हिस्सा बनाए रखने के लिए एक ढोंग रचाना पड़ता है सयानेपन का पर सच्चाई तो यही है कि अंतर्मन में तुम जानते हो तुम कितने बेवकूफ हो। अरे माफ़ करो, बेवकूफ़ नहीं, नादान!
मेरा नाम है प्रतिष्ठा और यथा नाम तथा गुण के अत्यधिक चिंतन के चलते मेरे दिमाग में सिर्फ़ उलझन बची है। लोग मुझे लेखक बोलते नहीं चूकते हैं और मेरा मन यह सुनते ही झेंप जाता है। मुझे समझ नहीं आता है कि इस औदे पर मैं खरी उतरी भी हूँ कि नहीं।
मैं इतने लोगों से होकर गुज़री हूँ कि व्यक्तित्व पर साहसी प्रश्न उठा देती हूँ। आप सोच रहे होंगे कि साहसी प्रश्न क्या होता है तो जान लीजिए कि सूझ बूझ से प्रश्न उठाने में जो हिम्मत जुटानी पड़ती है वो प्रश्न उठाने वाले ही जान पाएँगे। आज जब मैं महादेवी वर्मा की किसी कविता को पढ़ती हूँ तो मुझे लगता है वाह, क्या बात है और उसके बाद ही जब चार्ल्स बुकोव्स्की की बेबाक बातों पर ध्यान देती हूँ तो आह पर रुकती हूँ जाकर। अगर मैं और भाषाओं का चयन करती या कभी करुंगी तो यक़ीनन मुझे उन भाषाओं में की गई सत्य अभिव्यक्तियां भी ख़ूबसूरत ही लगतीं या लगेंगी। लिखने वाले शब्दों को लाचार कर रहे हैं, शब्द भी थक गए हैं। दिक्कत पता है क्या है, लोग जैसे अपनी नीरस नौकरी करते हैं वैसी ही चाकरी इन शब्दों से कराते हैं। मुझे हमेशा से यही लगा है कि लिखना एक ऐसी कला है जिस पर कोई भी स्पर्धा नहीं हो सकती। लिखने के तरीके से तो लोग लोगों को कहीं भी घुमा फिरा सकते हैं पर आजकल मार्केट में काफ़ी नई नई चीज़ें आ चुकी हैं और मैं कितनी ज़्यादा बेवकूफ़ हूँ ये मुझे पता चलने लगा है। पहले मैं नदी को किसी भी दिशा में बहाती थी तो उस दिशा में बैठा प्यासा व्यक्ति अपनी प्यास बुझा ही लेता था। पर अब जिस दिशा की ओर मेरी नदी नहीं बहती है उस ओर लोग प्यासे रह जाते हैं और मुझपर बाद में अपशब्दों की बारिश भी करते हैं। दोनों बातें एक ही हैं, पढ़ने वाले समझ पा रहे होंगे। आज मुझे लग रहा है कि पहले लोगों की प्यास बुझाने की तृप्ति थी आज प्यासा मारने का दोष सर पर मढ़ा हुआ है।
अब यह सारे शब्द अनिच्छा से बिक चुके हैं। बाज़ार में जैसे बाहर की तरफ़ रंग बिरंगे नए ज़माने के चलन के अनुसार कपड़े लगे होते हैं न दुकान के प्रदर्शन के लिए ठीक उसी प्रकार लोग स्वयं पर शब्दों का शॉल डालते हैं , बढ़िया बढ़िया शब्दों की कढ़ाई वाला शॉल। अपने अंदर के कमज़ोर आदमी को कविताओं के सहारे उकेर कर बाहर निकालते हैं, बहलाते हैं, फुसलाते हैं, समझाते हैं और अंत में मलहम पानी करके कुछ समझते नहीं है वापस से उस घाव के होने का इंतज़ार करते हैं और पूरा दृष्टांत दोहराते हैं। आज मैं नाराज़ हूँ और शायद मेरी नाराज़गी अमान्य है पर तुम बस इतना बताओ कि मैं कितने दिन तक इन शब्दों से कढ़ी शॉल के पीछे मुँह छुपाऊँ? मेरी 25 साल की उम्र में अगर मैं अपना क्रोध जताने से डर रही हूँ तो मुझे पता है कि मैं गलत हूँ।
मैं आज गलत नहीं हूँ।
मुझे पता है, न ही मेरा कुछ जा रहा है न ही मुझे कुछ मिलने वाला है पर चिंता तो चिंता होती है। मेरी दुनिया कहानियों से काफ़ी अलग हो चुकी है, सिखाए गए तौर तरीकों से अलग हो चुकी है और मुझे डर है कि कहीं मेरा समाप्त होना एक सदी को समाप्त न कर दे। वैसे तो व्यक्तिगत उलझनें ही इतनी हैं कि मैं क्यों सोचूँ यह सब पर मुझ पर काफ़ी लोगों ने नाराज़गी जताई है कि मैं सच क्यों नहीं कहती हूँ।
मेरा घर कोई अमीरों का घर नहीं हैं, मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार के रहन सहन को गले से लगा कर रखती हूँ। यहाँ जब भी कोई चीज़ नई आती है तो सुख की लक़ीर एक गर्व पर टिक जाती है।
जैसे कि आजकल रातों में लोग घर के सबसे बड़े दरवाज़े पर ताला नहीं लगाते हैं न ही अब खूँटी पर टंगता है चाबियों का गुच्छा, अब लगते हैं इंटरलॉक। पर फिर भी दूसरे के घर का पुराना ताला देख कर इतरा जाते हैं क्योंकि इतने बरस से जिस ताले से वो सुरक्षित थे उस ताले को छोड़ कर एक नई व्यवस्था को अपना लेना बड़ी बात नहीं है पर हाँ मन से स्वीकृति दे देना कठिन होता है। मैं स्वयं अपने नए घर को अपना घर मान ही नहीं पाई हूँ, मेरे लिए तो वो तीन छोटे कमरे और एक बरामदे वाला घर ही सुखद था।
सुख होना और सुख बनाना यह भी एक नया खेल आया है बाज़ार में, हम सबको पुराना पसन्द बहुत आता है पर शायद उस पुराने के वजन को सहने की ताक़त अब विलुप्त हो चुकी है। लोग अब किताबों में रामायण की उर्मिला को थोड़ा और पढ़ लेते हैं, लंका की मंदोदरी को थोड़ा और जान लेते हैं। कृष्ण को भला बुरा बता देते हैं, भगत सिंह की तारीफ़ कर देते हैं, गाँधी पर विवाद कर लेते हैं पर एक बार विचार नहीं करते कि वो जगह, उस जगह पर रहना और वो सब सहना अब लोलुप शरीर और कमज़ोर हृदय के बस की बात नहीं है। अब मुझे सारा सत्य अपने सामने टहलता हुआ दिखता है, वही सत्य जो पूर्वज कह गए थे। पर सत्य सबका अपना है तो आप अपना सत्य इसमें खोज लेना। पर हाँ इस पूरे लेख में जताई गई मेरी नाराज़गी को ग़लत मत लीजिएगा, कुछ रातें सबकी तंग ही जाती है, आज मेरी भी है। मेरे पास चुनाव था कि आज भी एक सुंदर सी कविता के पीछे अपने रोष को छुपा कर थोड़ा कमज़ोर हो लूँ या फिर कह दूँ सब साफ़ साफ़।
मेरा चुनाव आप सब पढ़ रहे हैं।
हर व्यक्ति जो लिख रहा है वो लेखक नहीं है, तुम्हें भी शायद पता है कि क्या चल रहा है। तुम मानोगे नहीं यह भी जानती हूँ, पर मुझे कहकर अच्छा लगा और यदि तुम चाहो तो मेरा बहिष्कार कर दो तुम इन लेखकों के समाज से मैं कुछ नहीं कहूँगी पर हाँ सांत्वना ज़रूर दे जाना। वो क्या है न मैं भी लोलुप और कमज़ोर हूँ।
एक और बात, आज से मैं बतौर लेखक कुछ भी नहीं लिखूँगी, सिर्फ़ नमकीन सच लिखूँगी। कभी मर जाऊं तो इस डूबने के आरम्भ में लिखा यह लेख किसी एक डूबने वाले के सामने पढ़ देना। क्या पता डूबते डूबते वो मुझे जीवित कर जाए।
Every writer is successful in inspiring and bring joy to its readers and so is the case with u. ....keep shining always ...😘 ...
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरती से सच लिखा है!!💜
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और बहुत ही पेंचीदा...
ReplyDeleteसुंदर तरीके से सच्चाई लिखी है|
ReplyDeleteA deliberate change covered with the veil of truth
ReplyDeleteThough the truth doesn't cover
It always uncovers