सोचा है कुछ आज लिखूँ,
उड़ता उड़ता बाज लिखूँ।
ख़ुद को मैं मोहताज़ लिखूँ,
सबके दिल का राज लिखूँ।
गिरेबान की लाज लिखूँ,
गिरी ये कैसी गाज लिखूँ।
मैं ठक ठक करता साज़ लिखूँ,
या डूबा हुआ जहाज लिखूँ?
समझ नहीं आता है कि मैं कैसे ख़ुद को समझाऊँ,
दूजे का मन बैठा जाता,
मैं कैसे उसको बहलाऊँ।
तुम भी तो कितने डरे हुए, मैं कहाँ ही तुमको टहलाऊँ?
सब कितने चोटिल बैठे हैं, मैं कैसे मलहम कहलाऊँ?
मैं कैसे बैठूँ शान्त चित्त?
मैं कैसे ओढ़ूँ स्त्री चरित्त?
जब मन भी सबका गौड़ बड़ा,
जब तन भी सबका प्रौढ़ बड़ा।
कितने डूबे हैं तूफ़ां में,
कितने खोए हैं आँधी में,
कितने बचे कुचे चोटिल,
कितने जल गए आबादी में?
क्या बचा हुआ है जूठन में,
क्या ख़त्म हुआ है उबिठन में?
कैसी कुर्सी? कैसा दीमक?
सब सड़ा जा रहा जन जन में।
सबकी धीमी साँसें अब भी
कर रहीं रुदन कुछ जीवन का।
असमय समय आया है यह,
सूरज डूबा है हर मन का।
मैं कैसे अपने हाथ मलूँ?
मैं जैसे कोई मोम गलूँ।
मैं तुम बिन पग पहुँचूँ कैसे?
मैं ऐसी कैसी चाल चलूँ?
मैं किस मुँह से यह बात करूँ,
कितनी पीड़ा के साथ करूँ?
पर समय बड़ा ग़मगीन हुआ,
अपराध बड़ा संगीन हुआ।
हौसला!
हौसला कहाँ गंवा बैठे?
तुम दीपक हो, जलते रहना,
तुम ख़्वाब हो बन्धु, पलते रहना।
तुम समय हो, चलते रहना।
तुम बर्फ़ का पहाड़ हो, धीमे धीमे जमना
और सूरज को मूर्ख बना कर, थोड़ा थोड़ा गलते रहना।
तुम रोज़ रोज़, तुम रोज़ रोज़
उगते रहना ढलते रहना।
कितनी भी आँधी आए,
मेघ भले तुम्हें ढँक जाए,
लड़ते रहना भिड़ते रहना,
पर प्रियवर तुम ज़िंदा रहना।
किसमें हिम्मत छीने तुझसे लालसा तेरी यह जीने की?
तेरी छाती में दहक बहुत, आदत है आँसू पीने की।
तुम सीमा पर हो तने हुए,
जंग में क्यों अनमने हुए।
हारो मत, यह सीख नहीं,
ज़िंदा रहना कोई भीख नहीं।
तुमसे ही सब है बंधु,
तुम लड़ो न! हारो मत बंधु।
मेरी स्नेहपूर्ण यह विनती है,
तुम चलते रहो निरंतर ही।
मैं बाट जोहती हूँ सबका,
लौट आना तदनंतर ही।
❤❤
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