लेखन एक तरह का तिलिस्म है ।

यह मुझे अब समझ आने लगा है, और आता रहेगा ।

मैं यह जानती हूँ कि आप सभी लेखन को अलंकृत करना एक महत्वपूर्ण अंग समझते हैं साहित्य का परंतु समय के साथ मुझे यह भान हुआ है कि लेखन एक ऐसी क्रिया है जो आपको वो सब कहने के लिए प्रोत्साहित करती है जो आप स्वयं से भी कह पाने में असमर्थ रहते हैं, उसे जितने सत्य के साथ उकेरा जाए उतना ही सजीला लगता है, सत्य कच्चा ही अच्छा लगता है ।


लेखन को कभी क्लिष्ट नहीं होना चाहिए ।

लेखन तो स्वभाव दर्शाता है, व्यक्तित्व दर्शाता है ।


मैं!

मैं भी एक तरह का चोंगा पहन कर ही लिखती हूँ । मेरे लिए कागज़ सफ़ेद आसमान जैसा है जिसकी दीवारें हैं। दीवारें हैं तो कोने होना स्वाभाविक है, है न? तो उन्हीं कोनों में चिपकी हुई धूल जिसे मैं हटा नहीं पाती हूँ, मुझे भय रहता है कि उस धूल को कोई और न देख ले, वो धूल मेरी कूपमंडूकता है, मेरा अबलापन है, मेरी कमजोरी है, मेरा तप है, मेरी ग्लानि है, मेरा संघर्ष है । अच्छा मैंने देखा है कि संघर्ष करते वक़्त व्यक्ति को भान नहीं होता है कि वह अपने जीवन के मूल्यवान समय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण सीख ले रहा है । इसे पढ़ते वक़्त जिस जिस के मन में वो एक विरोधाभास की छोटी सी हूक उठी है, मैं मानती हूँ कि उन सभी को थोड़ी सी समानुभूति रखनी चाहिए, मेरा वक्तव्य मेरे तजुर्बों से निकलता है । हाँ मैं जानती हूँ कि आप फिरसे मुझे स्वयं के तजुर्बे और उम्र के परस्पर विरोध का पाठ पढ़ाना चाहते हैं परंतु मुझे लगता है यही है वह भावुकता जहाँ तिलिस्म जन्म लेता है ।


मैं तो भटक ही गई अपने गंतव्य से, हाँ तो मुझे अपने शब्द उस सफ़ेद आसमान में बंधे हुए फिर भी उड़ते हुए परिंदे लगते आए हैं । मेरा मन भविष्य की बात को लेकर हमेशा जिज्ञासापूर्ण रहता है और प्रयासरत रहता है भविष्य के रहस्य का अवलोकन करने में । मेरा एक एक परिंदा जो उस आसमान में उड़ता है उसे काफी भारी मन से उड़ाया होता है मैंने, अपनी पकड़ उनके पंख पर धीरे धीरे ढीली की होती है । वे परिंदे भी खोए से उन पारदर्शी दीवारों से कई बार टकरा जाते हैं, जैसे मेरा मन समाज की रूढ़िवादिताओं को लांघना चाहता है पर सम्बन्धों के पाश में असहाय सा उलझा रहता है ।

आज बहुत दिन बाद मेरी धमनियों में हो रही थिरकन ने मुझे सत्य लिखने पर मजबूर किया है और सत्य हमेशा से दुखदाई, क्लेश लाने वाला रहता है जिसको हम लोग प्रेम से परोसते हैं । परंतु सत्यवाचन के आकर्षण से बच पाना भी मुश्किल है, सत्य का वाचन करना बिना भीरुता के, यह भी एक तरह की मेधा है और मैं इतनी मेधावी तो नहीं हूँ । हाँ, मैं आदर्शों के प्रति झुकाव ज़रूर रखती हूँ और भँवर से हाथ पैर मार कर निकलने के बाद मैं भी एक आदर्श हो जाना चाहती हूँ| देख रहे हो न आप मेरे तुच्छ मन के क्षुब्ध कर देने वाले विचार, पर जीवित रहने के लिए छाती में कंपन रहना ज़रूरी है संभवतः ।

आजकल दिन बड़े ही मटमैले हैं, मन भी काफ़ी मायूस रहता है और सबकी शुभेच्छा है कि सबको शब्दों से, आचरण से उन्हें प्रसन्न रखा जाए । ऐसी अवस्था में एक सत्य कहना किसी के हृदय की संपत्ति पर बारूद गिराने जैसा है ।

पर मैं भी इतनी बेबस, इतनी लाचार हूँ कि सत्य लेकर सबपर धाक लगाए बैठी हूँ । मैं स्वयं के कृत्यों से नाराज़ हूँ, पर क्या करूँ, दिल की सुनने निकली हूँ तो अवश्य ही अपनी अंतिम इच्छा को उजागर कर देना चाहूंगी ।

मेरा हाल फिलहाल दर्द से साविका हुआ है, और मैं तबसे छटपटा रही हूँ क्योंकि वह दर्द मेरा नहीं है । मैं तो अपनी उदासीनता से परिचित हूँ, मेरे मन के मलाल मुझसे हर रात्रि भेंट कर जाते हैं, मेरा विषाद मेरे इर्द गिर्द मँडराता रहता है, मेरी ग्लानि मच्छर की तरह मेरे कानों में दिनामान भुनभुनाती रहती है और इन सबसे निपटना तो मैंने कबका सीख लिया था परंतु यह, यह पराया विषाद मेरे हृदय का दीमक हो चला है । कैसे समझौता करूँ मैं ऐसी क्षुब्धता से जो किसी और को चोट लगने पर हो रही है, प्रेम कहूँ, लगाव कहूँ, अपनी उस व्यक्ति के जीवन में सदस्यता कहूँ? क्या कहूँ?

मैं उस प्राणी की हर एक कहानी कि श्रोता रही हूँ और पता नहीं कब मैं थोड़ी थोड़ी सी उस जैसी ही बन गई, मेरी छाती में भी उसकी पराजय की उतना ही पीड़ा है जितनी उसे है । जब प्रथम दर्शया मेरी समझ ने मेरे शरीर से झाँक कर बाहर देखा होगा तब मेरे लिए मेरा उद्गम हुआ होगा, परंतु उस प्रवाह से लेकर इस तल की शांति तक मेरी समझ या तो बड़ी हुई है या विकृत । मैं स्पष्ट रूप से देख नहीं पा रही हूँ, उम्र और तजुरबा मुझे अंधा किए दे रहे हैं, लोगों के हृदय का कंपन, विलाप, क्रंदन मुझे जीने नहीं दे रहा है । जितना मैं हृदयों से जुड़ती जा रही हूँ उतना ही एकाकीपन मुझे घेरते जा रहा है । परंतु इस एकाकीपन में सब कुछ भरा भरा सा है, आँखें, हृदय, मन, मस्तिष्क और वो भी तुम्हारे, उसके, इसके, न जाने किसके किसके विलाप से । 


भीषण सत्य को जब समाप्ति के वक़्त रूप देने की बात आती है तो मेरे परिंदे मेरे उस सफ़ेद आसमान से गिर पड़ते हैं, मुझे इन्हें थोड़ा और सिखाना होगा, समझाना होगा, तत्परता के साथ उड़ना सिखाना होगा, चोटिल होकर भी उड़ते रहना सिखाना होगा । तब तक के लिए विदा लेती हूँ ।

जब इस धुंधले से दृश्य की साफ़ तस्वीर को देख पाऊँगी तो वापस आऊँगी और आपको अवगत कराऊँगी उस सत्य से जो मेरे सत्य से, आपके सत्य से और हम सब से बड़ा है । अभी यदि उस सत्य को नाम दूँ तो सिर्फ़ प्रलाप निकलेगा वो भी मेरा नहीं इसलिए मैं इसे क्रंदन की तनया कहना चाहूँगी ।


ध्यान रहे कि आप यदा कदा मेरे मन मास्तिष्क में रहते हैं, मैं आपको समझ पाने का पूरा प्रयास करती हूँ, तो आप अकेले नहीं झेल रहे हैं, मैंने आपका दर्द बाँटने की सम्पूर्ण चेष्टा की है ।


प्रेम!


3 comments:

  1. Aap itna achha hindi ka bhi gyan rakhti
    Pta nhi tha aur aajkal km hi logo ka jhukaw hai hindi ki traf usko jinda rakhne ke aapke yogdaan ko abhinandan

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