लगता है पसीना बहुत आता है हाथों में,
जब देखो दूसरा हाथ छूट जाता है मेरे हाथों से।
लकीरें कभी बदल जाती हैं, कभी गाढ़ी हो जाती हैं तो कभी बस ख़त्म।
लगता है अब असर मुझ पर पड़ रहा,
कभी आँखों से सपना गिर रहा है,
कभी हाथ से समय निकल रहा है।
जो सीने में बंद शोर है, वह भी बढ़ता जा रहा है,
लगता है मेरी साँसों का साहस छूटता जा रहा है।
ग़लती एक, रोज़ हो जाती है,
और करवट के सहारे रात गुज़र जाती है।
मैं गीली आँखों से रोज़ ग़लती करता हूँ।
मैं मानुस हूँ,
अब दोस्ती से डरता हूँ।
मैं आँख मूंद कर पड़ा रहता हूँ,
कहीं खुलने पर बस मैं मुझको न दिख जाऊँ।
जिस पीछे से आया हूँ,
उस पीछे न मुड़ जाऊँ।
हर रोज़ की एक ग़लती का मुआवज़ा कौन भरेगा।
बताओ दोस्त,
जो मैं खुद का न रहा मुझसे दोस्ती कौन करेगा।
बस हाथ पसीज चुके हैं फिर,
तुम फिसल रहे हो फिर,
हम पिघल रहे हैं फिर।
एक ग़लती से हम गुज़र रहे हैं फिर।
No comments:
Post a Comment