मै हूँ जो मेरा बचपन था| वही जो सच था, सम्पूर्ण था, चाह थी पर संतुष्ट था | पारंगत न थी मै पर सब अतुलनीय था, बासी रोटी भी भा जाती थी, गगरी का पानी सुख दे जाता था| और आज क्या है? आज मै हूँ, उस बचपन को पीछे छोड़ने के बाद भी उसके पीछे दौड़ती हुई|
क्योंकि दुनिया गोल है|
मेरी वह अल्हड़ सोच कहाँ गई जो सबको असमंजस में डाल देती थी | मेरी लाचार आँखें उन उत्सुक आँखों को ढूँढती हैं जो विलुप्त हो गई हैं| मेरे प्रयास भी परंपरा बन गए हैं या फिर मै कह लूँ कि परंपरा ही प्रयास बन गई है | वह आतुर बचपना जो सब जानने को दौड़ता था वह ऐसे आज में परिवर्तित हुआ जिसमे चहक नहीं है|
आज अगर कुछ है तो हैं ये दो आँखें जो आसमान में उड़ते पंछी को देख रही हैं और स्वयं को समझा रही हैं कि मै उस उन्मुक्त गगन का हिस्सा बन सकती हूँ| पर मै थक गई हूँ इस कथा को सच बनाने के प्रयास में| पर आज इस लाचारी को मै तुम्हे समझा भी नहीं सकती क्योंकि यह लाचारी वह पहचान है जो सब जान कर आई है। मै धैर्य का परिचय तो नहीं दे सकती पर हाँ उदार हो सकती हूँ खुद पर|
यह तो बस एक तरंग की प्रतीक्षा है, जो किसी और में ढूँढती हूँ क्योंकि मै खुद को खुद से दूर भी नहीं भेजना चाहती हूँ, और खुद के आचरण में बदलाव लाने से डरती भी हूँ| माना मै स्वयं की परिभाषा बदलते बदलते ऐसे झूम गई थी कि इस रंगमंच के ऐसे पड़ाव पर हूँ जहाँ लोगों को समझाना पड़ता है कि मेरी उत्पत्ति कहाँ से हुई है और मेरा अंत कहाँ पर होगा | और यह आसान न है क्योंकि मै स्वयं ही असमंजस में हूँ कि या तो मै स्वयं को स्वयं से मिला दूँ, या सबको झूठ बतला दूँ|
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