मैंने सोचा है रंग लिखूँ,
स्वयं
को थोड़ा बेरंग लिखूँ ,
शहर
की गलियाँ तंग लिखूँ,
तुमको
थोड़ा बेढंग लिखूँ।
मैं
सखा नहीं सौतन ही सही,
मैं
प्रिया नहीं चाँदनी बनूँ।
तुम
प्रेयसी संग हो या न हो,
मैं
तुमको छूकर रागिनी बनूँ।
मैं
पर्वत को चीरूँ भी नहीं,
मैं
धरा पर यूँ उतरूँ भी नहीं।
ना
मैं आसमान की होकर रहूँ,
न ही
थल को धो कर रहूँ,
तुम
जितने आकर्षित बन जाओ,
क्षण
भर तुमको घूरूं भी नहीं।
मैं
हाथ न तेरे लगूँ कभी,
मुझको
मथ मथ के ढूंढ रे तू।
मैं
काजल, बिंदियां, चुनरी संग
सिंदूर
की डिबिया सी लगूँ।
तुझको
मेरे रूप का लोभ लगे,
मुझको
तेरा ही भोग लगे।
जब
रिश्ता नाता फबे नहीं,
तो
हृदय को थोड़ा क्षोभ लगे।
पर
दूर से ही,
बंधन
से मैं मुक्त नहीं,
इसको
कहलो मजबूर सही।
मैं
तुम यही विहार करें,
प्रेम
पूर्ण नहीं तो हलंत सही।
अब
हुआ है जो इस क्षण प्रेम प्रिये,
सिंधु
पार अब अंत सही।
ढूंढे
मिला न पंथ कोई,
जो हम
काढ़े वह ग्रंथ सही,
चलो
लिखे कुछ रेत पर,
प्रेम
ग्रंथ का अंत सही।
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