अरे ऐसा क्या हुआ है आज जो हम कटघरे में खड़े हैं,
खुली हवाओं में अमन से फहर रहे थे,
आज उस हवा से गिर कर क्यों कचहरी में आ पड़े हैं।
दोस्त, कल सोचा था मैंने कि हम अपना धर्म कर रहे हैं,
पर आज पता लगा है,
हम धर्म होकर अधर्म कर रहे हैं।
मुझे तो लगा हम सिर्फ़ कपड़ों के रंग से अलग होते हैं,
पर आज पता चला है हम हर ढंग से विलग होते हैं।
तुम्हारे धर्म का कपड़ा हमारा चादर नही बनता है,
और हमारे धर्म का ज्ञानी, church का father नही बनता है।
किसी गंगा के बगल में सूफ़ी गीत नही होता है,
कोई मीरा अल्लाह से प्यार करे, ऐसा कोई ढीठ नही होता है।
लंगर की सेवा में मुस्लिम नही जाता है,
मुस्लिमों की ईदी को हिन्दू नही खाता है,
दोस्त तुम्ही बताओ एक थाली में खाने से प्यार बढ़ता था न,
तो आज क्या एक धर्म का थूक दूसरे धर्म का हालाहल बन जाता है?



मुझे हम सबकी अम्मी याद आती है,
किसी की mother, तो किसी की जननी याद आती है।
वो जो सफ़ेद साड़ी में हमारा दाग लिए गई थी,
हमे यह मिट्टी बेदाग दिए गई थी।
मुझे तो याद है जब पूरा मोहल्ला सिंधी कढ़ी खाने केवलानी जी के घर जाता था,
खोए की सेवई लेकर खान जी को शुक्ला जी के घर बुलाता था।
जब लोहरी में किसी Sam को किसी मनप्रीत से प्यार हो जाता था,
जब साहित्य हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी जाना जाता था,
तब हमारा मोहल्ला हर रात हँस बोल कर सो जाता था।
अब तो मेरे तकिये के नीचे बारूद बजते हैं,
तेरे भी शहर में बंदूक चलते हैं।
मेरे लोग मुझे तुमसे मिलने नही देते हैं,
किसी आनंद को नमाज़ पढ़ने नही देते हैं।
किसी रक़ीब को बाँसुरी बजाने नही देते हैं,
राधा के अलावा किसी को दिल लगाने नही देते।
भाई हमारी अम्मा का ख़त आया था,
हम सब चलते हैं उसके आँचल में,
रथ आया था।
तुझे मुझे यह पता है कि अब हम मर चुके हैं,
क्योंकि जो हमसे हैं, हम उनसे डर चुके हैं।
आजा मेरे गले लग ले आज इस इंसाफ़ की दुनिया में,
क्योंकि इसके बाहर, हम दोनों तो काफ़ी पहले ही तराज़ू में तुल चुके हैं,
बिक चुके हैं, गल चुके हैं।
हाँ भाई दिलों में धर्मों के सिर्फ़ उसूल बाक़ी हैं,
सारे धर्म तो कबका धुल चुके हैं।

-प्रतिष्ठा

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