वक़्त वक़्त को बैठ कर उलाहना दे रहा है,
जो है वो जाते हुए को बैठे बैठे ताना दे रहा है ,
जूझता हुआ दिल कांपते हुए हाथों को पैमाना दे रहा है ।

सबको सबसे शिकायत है,
आने वाले को डर है
न जाने कौन किसका हिमायत है।

नन्हे मुन्ने वक़्त के टूकड़ों, आओ आज एक कहानी सुनते हैं,
वक़्त की चौखट पर वक़्त निकाल कर वक़्त की वक़त बुनते हैं।

कभी किसी एक देश में एक वक़्त किसी का हुआ करता था।
वो वक़्त स्वयं ही प्रेम कर बैठा था जिसका था उससे,
वो ठहरा हुआ वहाँ उसकी सोइ हुई मुद्रा में उसके गालों को छुआ करता था ।

उसके हाथों के नर्म हिस्सों को अपने मर्म हिस्सों से भरा करता था,
वो वहां बैठा रह जाता था और न जाने कौन कौन कहाँ  कहाँ उसे याद किया करा करता था ।

ठहरा हुआ वक़्त वहाँ मुस्कुराता रहता था,
जिसका था वो शख्स झुँझलाता रहता था ।
सबको बढ़ते देख, बातों पर झगड़ते देख,
 शिकायत कर बैठा।
वक़्त जो बेच कर रुका था,
उसे  छोड़ किफ़ायत कर बैठा ।

एक सुबह बगल से उठ कर धूप को थोड़ा सा उस पर रख कर वक़्त अलविदा कर गया,
वो शख्स उठा थोड़ा कसमसाया और  थोड़ा डर गया ।

जिस वक़्त को वक़्त ने अनजाने में रोका था वो देर से आने पर काफ़ी ख़फ़ा था,
उसकी चादर को रौंद कर उसे  उठाया जैसे वो बिलकुल बेवफ़ा था ।

इस वक़्त की उधेड़बुन में उस वक़्त की याद आने लगी थी,
घुटन होने लगी थी, जान जाने लगी थी ।
वो व्यक्ति व्यक्त क्या करता जो वो वक़्त  किया करता था,
मद में यह रहता था जबकि मदिरा वो पिया करता था ।
वो थोड़ा थोड़ा कटता चला जाता था जबकि यह जिया करता था,
वो ख़त्म हो जाता था जब यह अपने लिए वक़्त लिया करता था ।

एहसास का क्या है, हो जाता है।
जो रोज़ सामने दिखता है वो समय आने पर खो जाता है ।
इस वक़्त को प्रेम ने छुआ नहीं था ,
इसे भी प्रेम हुआ नहीं था।
जहां से चल कर आया था वहाँ भी सिर्फ़ नाराज़गी मिली थी,
वक़्त कैसा भी था उसे सिर्फ़ नज़र अंदाज़गी मिली थी ।
यह टूटा फूटा समय टला तो नया आ गया,
व्यक्ति का प्रेम निर्भया आ गया ।

अब कहानी उधर की देखते हैं,
जो वक़्त यहाँ से टूटा दिल लेकर चला था वो किसी और का दिल तोड़ बैठा है,
और जो व्यक्ति को तोड़ कर निकला था वो किसी की गोद में खुद को सिकोड़ बैठा है ।

यही तो  रिवाज़ है न,
तुम अलग हो, मैं अलग हूँ, वो अलग है,
हमारा समय अलग है ।
जैसे कुछ कपड़े तुम पर अच्छे लगते हैं पर मुझ पर नहीं ,
उसी तरह कोई समय मुझ पर अच्छा लगता है पर तुम पर नहीं ।
 क्यों बेवक़्त वक़्त को भला बुरा कह बैठे हो,
क्यों बेवजह फ़िक्र की बाहों में खुद को डाल कर उसको सह बैठे हो ।
किसी शब्द के विलोम को जियोगे नहीं तो उसके भावार्थ से मिलना कैसे होगा,
हर दर्द से रूठ जाओगे तो हर्ष में खिलना कैसे होगा ।

वक़्त को वक़्त से बेरुखी है तो चलो समझ सकते हैं,
वक़्त वक़्त है कोई व्यक्ति नहीं,
वो ख़त्म हो रहा है उसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं ।
पर हम तो बन रहे हैं हर ख़त्म होते वक़्त के साथ,
धड़कने ऊपर नीचे हो रही हैं हममें भरे हुए रक्त के साथ।
क्यों डिग जाते हो सिर्फ़ उड़ान के वक़्त की सोच कर,
वक़्त आएगा जब सब जो बटोरोगे वो ले जाएगा वक़्त दबोच कर।
पर अभिव्यक्ति से व्यक्ति कहानी बनाएगा,
वक़्त का काम है कटना, कटता चला जाएगा

आओ मेरे वक़्त के टुकड़ों, तुम को बटोर कर उस लकड़ी की टोकरी में वापस रख देती हूँ,
उसको अपनी संवेदना से ढँक देती हूँ।
फिर कभी हुआ तो आऊँगी,
वक़्त को टटोल कर वापस बुलाऊँगी,
एक कहानी फिर सुनाऊँगी।
तुम फिर मेरी गोद में सो जाना,
चले गए थे कबका पर फिरसे क्षणिक मेरे हो जाना।

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